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कल पुराने खत पढ रहा था,
और साथ बहुत कुछ कर रहा था.....
फिर उस खत पर नजर पडी,
भीगे लफ्ज पर जाकर रूक गयी...
वक्त जैसे ठहर गया,
याद उन दिनों की आने लगी....
मैं कभी शायरी लिख कर अपने साथ ले चलता...
और पुलिया पर तुम्हारी राह तकता ....
फिर बडा धीरे से चलता हुआ....
तुम्हारा रिक्शा दिखाई देता था,
रिक्शा बेसबरी से नजदीक आने के इन्तजार मैं करता रहता...
जैसे ही मेरे बराबर आ जाता,
मै अपनी साइकिल चलाने लगता.....
फिर सडक पर भीड कम देख कर अपनी खत तुम्हारे हाथ में देता...
तुम उसे लेती भी और नहीं भी,
फिर थोडी देर बाद खोल कर पढती....
बचपन की शायरी में अरमान ज्यादा और वजान कम......
पढते हुए निकल जाती थी तुम,
ना कभी पलट कर देखा.....
ना रूके ना कभी सलाम दुवा....
मेरा भी Department आ जाता...
और तुम्हे और आगे जाना रहता...
कितने दिन चला ये सिलसिला...
सिर्फ छुट्टियों में रूकता,
मैं भी तुम्हारे जाने के बाद घर जाता था....
और आने के पहले आ जाता था....
कभी बात नहीं हुई....
बस Classes कि Timing देख कर पता चलता...
कि कब लौटना है...
बडे बेचैन दिन थे वो...
जब मै लौट आता था और तुम नहीं......
फिर एक दिन ऐसा भी आया...
Exams खतम हुए और हम सब....
हमेशा के लिए Campus छोड कर...
दुनिया में उतर रहे थे....
एक अजीब महौल छा गया था दिल में....
एक खालीपन जो बर्फ में फसे हवा के बुलबुले जैसा है.....
जो उस वक्त बना जब मैं....
तुम्हारे रिक्शे के साथ...
जिसमें तुम्हारा सामान भी था....
Station जा रहा था तुम्हो छोडने.....
इरादा फिर मिलने का था...
डर जुदाई का...
फिर तुमने मेरे हाथ में...
एक खत रख दिया....
मैने बडी मुश्किल से उसे जेब में रखा....
मन कह रहा था की उसी वक्त...
पढ डालूं लेकिन....
गाडी का वक्त हो गया था...
तुम्हारे होस्टल की दूसरी लडकियां....
Platform पर थी....
और मुझे ख्याल आया ....
कि तुम उनके साथ स्टेशन नही आयी....
अलग से ताकी मै साथ चल सकूं....
और तुम मुझे से खत दे सको...
गाडी चली गयी....
बहुत देर तक स्टेशन के बाहर....
मैं रूका रहा....
दिल को बहलाने लगा....
कि ये दोस्ती थी प्यार नहीं,
प्यार होता तो बात और होती....
मैं उसका हाथ थामता....
रूकने को कहता......
लेकिन ये दिल ने कुछ नहीं सुना...
सब अपने अन्दर एक जगह छोड दी...
मैंने कभी उससे नहीं पूछा की...
मेरे खतों को क्या होता था....
पढे जाते थे या फेक दिये जाते थे
शयरी तो मैंने उसकी किताब में भी लिखी थी...
ना जाने कग स्टेशन से कैम्पस पहुच गया....
बडा अजनबियों सा महसूस हो रहा था...
मन हुआ झट से मैं भी इस जगह से दूर चला जाउं....
अब वैसे भी रखा क्या था....
एक Exam ख़त्म हो गया..
और दूसरे में मै फेल हो गया....
कमरा पहुआ और लेट गया....
उसका दिया खत निकाला....
पेट पर रखा कर सोचने लगा
क्या है इसमें.. ?
उसका पता.... ?
उसका नम्बर.......
इतने दिन के बेनाम साथ का अलविदा इकरार....
पढने लगा.....
"आप शायर है, जो अशर आपने मुझे दिये....
उम्मीद है आपके पास भी लिखें हैं....
क्यूंकि मैं सारे खत अपने साथ ले जा रही हूं...
कोई पूछे कि कितने बडे शायर हो
तो कह दीजियेगा......
दीवाने लाखों बार आप की शायरी पढ चुकें है......
और मेरी जानिब से आप के लिए कुछ.....
अल्फाज है गालिब के..
"और भी गम है जमाने में महोब्बत के सिवा...."
अब आप इसे वजह समझे या बहाना........."
याद खतम हो गयी ///
और मेरे छोटे से भांजे ने पूछा....
क्या आप सचमुच के शायर है....?
मैं हसा और कह दिया....
नहीं, जेहानी तौर पर तो कंगाल हूं जो अपनी यादों की तिजारत अल्फाजों में लिखता है.....
'तो फिर ये क्या है... ?'
पुराने खत को दिखाते हुए उसने पूछा...
मैंने कहा मेरा... 'Birth Certificate'
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